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वीआईपी दौरों का सच ?

***.......सीधी खरी बात.......***
***.......सीधी खरी बात.......***
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उत्तराखंड में आई भीषण आपदा के बाद जिस तरह सेना अपने काम में पूरे मनोयोग से लगकर पीड़ितों को बचाने का काम निरंतर करने में लगी हुई है वहीं देश पर राज करने वाले नेताओं के पास ऐसी आपदा के समय भी अपनी राजनीति चमकाने के अलावा शायद कुछ है ही नहीं ? आपदा के शुरुवाती दिनों से आज तक जिस तरह से वीआईपी लोगों के वहां आने जाने को लेकर बवाल मचा हुआ है क्या देश ऐसी बदतमीज़ियों को बर्दाश्त करने की स्थिति में है ? एक तरफ़ जहाँ आज भी बहुत सारे गांवों में सेना की पहुँच अभी तक नहीं हो पा रही है वहीं दूसरी तरफ़ इन विशिष्ट लोगों को उत्तराखंड में दौरे करने का मन कर रहा है ऐसा भी नहीं है कि ये वहां पर पहुँच कर कुछ बहुत ख़ास करने की स्थिति में हैं फिर भी केवल अपने राज्य में दबाव की राजनीति इन्हें ऐसा करने के लिए रोज़ ही प्रेरित कर रही है ? राजनीति चाहे जिस भी स्तर पर की जाये पर इसका जितना घटिया स्वरुप हमारे यहाँ रोज़ ही दिखाई देता है उसके बाद लोगों के मन में यह प्रश्न भी उठा है कि क्या देश को ऐसे नेताओं की आवश्यकता है भी या नहीं ?
देश में इस तरह की आपदा आने के बाद कम से कम लोगों को यह तो पता चल ही गया कि दिल्ली में केंद्र सरकार की देखरेख में कोई आपदा प्रबंधन का काम देखने लायक इतनी कारगर एजेंसी भी है जो सेना के साथ मिलकर दुर्गम स्थानों पर लोगों को बचाने के काम को किसी भी परिस्थिति में अंजाम दे सकती है और वह पूरी तरह से सेना के साथ कुछ भी असमभव को संभव कर सकने की स्थिति में है पर आज भी राज्यों के स्तर पर इसके विकास की बात है तो लम्बी चौड़ी बातें करने वाले नेताओं ने आज भी अपने प्रदेशों में इसकी बैठक तक नहीं की है. आपदाग्रस्त उत्तराखंड में तो २००७ से इसकी कोई बैठक ही नहीं हुई और पडोसी राज्य यूपी में कुम्भ मेले में हुई दुर्घटना के समय पता चला कि ऐसी तैयारियां यहाँ भी नहीं है तो बिहार से आपदा प्रबंधन विशेषज्ञों को बुलाया गया था ? नेता जितना ध्यान आपदा ग्रस्त क्षेत्र के दौरे पर दे रहे हैं यदि वे अपने राज्यों में ही आपदा प्रबंध के लिए केंद्र द्वारा सुझाये गए निर्देशों के अनुरूप काम कर लें तो यही देश की बहुत बड़ी मदद हो जाएगी.
आपदाएं बताकर नहीं आती हैं और आपदा के समय जिस तरह से सेना का बर्ताव होता है काश वैसा बर्ताव करने का दम हमारे नेताओं में भी आ जाए तो किसी भी समस्या से कुछ प्रारंभिक कठिनाइयों के बाद निपटने में आसानी होना शुरू हो सकती है पर अभी तक जिस तरह से आपदा को भी मुद्दा बनाया गया उससे यही लगता है कि हमारे देश के नेता अभी बहुत कच्चे हैं. जब देश की सेना अपने पूरे मनोयोग और कर्मठता के साथ राहत और बचाव में लगी हुई है तो आपदाग्रस्त क्षेत्र में किसी मोदी या राहुल की क्या आवश्यकता है ? पर लाभ उठाने की लालसा ने भाजपा को अपने हाथ से जल्दी ही छिटके इस राज्य में अपनी पकड़ मज़बूत करने के लिए इसे भी अवसर के रूप में भुनाने का प्रयास किया और स्पष्ट रूप से यह पूछा कि राहुल कहाँ है तो उसके इस तरह के बर्ताव के बाद कांग्रेस ने दबाव मानते हुए राहुल के स्वदेश लौटते ही उत्तराखंड दौरे को प्राथमिकता दी ? क्या इस तरह की राजनीति से उत्तराखंड वालों को कोई लाभ मिला यदि कुछ करना ही था तो ये नेता या जिन राज्यों के मुख्यमंत्री यहाँ आना चाहते हैं उन्हें एक एक जिले का प्रभार सौंप दिया जाए और जब तक राहत कार्य पूरा नहीं हो जाता उन्हें वहां से निकलने की अनुमति सेना द्वारा न दी जाये तभी इनके इस तरह के दौरों और सैर सपाटे पर रोक लगाई जा सकेगी.

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