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आतंक और एनसीटीसी

***.......सीधी खरी बात.......***
***.......सीधी खरी बात.......***
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विभिन्न तरह की अनावश्यक राजनैतिक चर्चाओं में उलझा हुआ देश पता नहीं कब अपने सामने आने वाले वास्तविक संकटों को पहचान पाने में सफल होगा क्योंकि जिस तरह से पूरे राजनैतिक तंत्र में अब केवल २०१४ के आम चुनावों की भगदड़ दिखाई देने लगी है उस स्थिति में किसी को भी देश में बढ़ते हुए आतंक पर लगाम लगाने के लिए केंद्र द्वारा सुझाये गए राष्ट्रीय आतंक रोधी केंद्र (एनसीटीसी) पर सोचने का समय ही नहीं है. हमारे देश में नेताओं के पास या तो उतनी सोच ही विकसित नहीं हो पाई है या फिर वे जान बूझकर इस तरह से महत्वपूर्ण मुद्दों को लटकाने में ही महारत हासिल कर चुके हैं क्योंकि जब भी केंद्र की तरफ़ से किसी ऐसे अखिल भारतीय केंद्र या योजना की बात की जाती है तो देश की राजनीति के अनुसार सत्ता पक्ष और विपक्ष बिना कहे ही अपने अपने खेमे सजा लेते हैं और किसी भी परिस्थिति में वे देश हित को ध्यान में रखना ही नहीं चाहते और अपनी अपनी विचारधारा और बातों को ही सर्वोत्तम मानते हुए आगे बढ़ने के सभी रास्ते खुद ही बंद कर लिया करते हैं ?
देश के राजनैतिक और लोकतान्त्रिक स्वरुप के चलते वैसे भी सत्ताधारी दलों में परिवर्तन होता ही रहता है पर जिस तरह से सत्ता में बैठा हुआ दल अपने को सर्वोत्तम और विपक्षी अपने को लोकतंत्र का रखवाला दिखाने की कोशिशें करते रहते हैं उससे उन छोटे बच्चों की दुनिया का एहसास होता है जिन्हें उस समय की परिस्थिति के अलावा किसी अन्य समस्या और उसके समाधान से कोई मतलब ही नहीं होता है. आतंक के मुद्दे पर वैसे तो सभी एक ही सुर में इसकी निंदा करते हैं पर जब इसके ख़िलाफ़ खड़े होने की बारी आती है तो सभी अलग अलग दिशा में मुंह करके खड़े हो जाते हैं. देश को एक दृष्टि की आवश्यकता है जो शायद आज के नेताओं के पास बची ही नहीं है या फिर वे हर प्रयास को केवल राजनैतिक चश्मा लगाकर ही देखना चाहते हैं. देश की आवश्यकता के अनुसार यदि केंद्र आतंक रोधी केंद्रीयकृत व्यवस्था को अपनाना चाहता है तो उसके बारे में गहन चिंतन करके उसके प्रारूप पर विचार किया जाना चाहिए और यदि कहीं से कुछ प्रावधान ऐसे भी हैं जो किसी तरह से राज्यों के अधिकारों का अतिक्रमण करते हैं तो उनमें बदलाव की संभावनाएं तलाशी जानी चाहिए.
देश के किसी भाग में आतंकी हमला होने की दशा में राज्य सरकारें एकदम से यह कहकर अपना पीछा छुड़ाने की कोशिश करती दिखती हैं कि केंद्र की तरफ़ से उन्हें कोई सुरक्षा सम्बन्धी इनपुट नहीं मिला था जबकि वास्तविकता यह है कि पूरे देश में इस तरह के इनपुट्स की ज़िम्मेदारी तो राज्य सरकारों पर ही अधिक है क्योंकि कोई भी केन्द्रीय दल अपने अनुसार किसी भी राज्य में ऐसा करने के लिए अधिकृत ही नहीं है जब तक राज्य सरकार उसके लिए आज्ञा न दे ? ऐसे कानून के साथ हम आज के लगातार आधुनिक होते जा रहे आतंकियों से लड़ने के मंसूबे पाले बैठे हैं जबकि हमारे नीति नियंताओं को ही यह नहीं पता है कि देश की आवश्यकताएं क्या हैं और सत्ता या विपक्ष में बैठने के बाद नेताओं के कर्तव्य क्या क्या हैं ? इस मुद्दे पर शिंदे ने जिस तरह से यह कहा है कि आपत्ति वाले बिन्दुओं पर चर्चा करने के लिए केंद्र तैयार है तो अब घटिया राजनीति को छोड़कर नेताओं को इस तरह के मुद्दों पर संसद में गंभीर बहस करके कड़े प्रावधान बनाने और उन पर अमल करने की इच्छा शक्ति दिखानी चाहिए क्योंकि केवल सदन या उसके बाहर बोलने और कड़े क़दम उठाने में ज़मीन आसमान का अंतर हुआ करता है जिसे पाटने के लिए नेताओं के पास कुछ भी नहीं दिखाई देता है.

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