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सियासी नमक हराम

***.......सीधी खरी बात.......***
***.......सीधी खरी बात.......***
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देश की राजनीति ने इस तरह के बहुत सारे किस्से देखे और सुने हैं जिनमें मर्यादाओं की सारी सीमाओं को बराबर लांघा जाता रहा है अब इस ताज़ा कड़ी में विवादों के सिरमौर और सपा के वरिष्ठ नेता आज़म खान ने जिस तरह से अपने पुराने दुश्मन और कभी सपा में सर्वे सर्वा रहे अमर सिंह को सियासी नमक हराम कहकर अपने दिल की भड़ास निकालने की कोशिश की है वह उनकी अमर के ख़िलाफ़ खुन्नस को ही दिखाता है. जिस तरह से मर्यादाओं का देश में कोई स्थान नहीं बचा है उसी तरह से सियासी लोगों की ज़बान पर कोई लगाम नहीं रह गयी है और आज़म खान का तो विवादों से नमक और हलाली जैसा साथ साथ रहा है ? क्या किसी से भी सियासी मतभेद होने पर उसे इस तरह के संबोधनों से नवाज़ा जा सकता है आज यही सोचने का विषय है क्योंकि एक समय बहुत सारे विरोध होने के बाद भी वैचारिक मतभेदों को राजनेता निजी हमले के घटिया स्तर तक नहीं ले जाते थे पर अब इस तरह के आरोप प्रत्यारोप लगाया जाना बहुत आम बात हो चुकी है. देश में राजनीति किस तरफ जा रही है इसका उदाहरण इसी तरह से बार बार दिखाई देता है और विभिन्न पार्टियों के वरिष्ठ नेता या अध्यक्ष इन पर अंकुश लगा पाने में पूरी तरह विफल दिखाई देते हैं.
यूपी में जब से सपा बसपा ने राजनीति की मुख्य धुरी में आकर सत्ता सँभालने का खेल शुरू किया है तब से इस तरह की बयानबाज़ी बहुत बढ़ गयी है. काफी समय पहले चुनाव के समय सजीव प्रसारण में सपा- बसपा नेताओं के बीच शुरू हुआ गुंडा-गुंडी का खेल आज तक चालू है और इससे निपटने के लिए जब पार्टियों के अध्यक्ष ही इच्छुक दिखाई नहीं देते हैं तो और कुछ भी नहीं सही कैसे हो सकता है ? किसी अन्य नेता द्वारा इस तरह की बात की गयी होती तो शायद मुलायम या अखिलेश को बोलना ही पड़ता पर अनुशासन को भी व्यक्ति के अनुसार निर्धारित करने में माहिर सपा २०१४ के मिशन में इतनी मशगूल है कि हो सकता है कि आने वाले समय में हमें नेताओं के बयानों के साथ स्टार ** छपे दिखाई दें या फिर टीवी पर उनके बयानों के समय टूं टूं की आवाज़ भी सुनाई दे ? पुरानी कहावत है कि जब व्यक्ति का पक्ष कमज़ोर होता है तभी वह चिल्लाकर या अपशब्दों का प्रयोग कर अपनी बात को रखने का प्रयास करता हैं पर आज़म तो आज सियासी तौर पर मज़बूत हैं फिर वे इस तरह से अपनी बात को रखकर क्या अमर सिंह को मज़बूत साबित कर उन्हें अहमियत नहीं दे रहे हैं ?
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और वैचारिक मतभिन्नता का यह मतलब तो नहीं हो सकता कि नीचता की किसी भी हद तक उतर जाया जाये क्योंकि नेता जो कुछ भी बोलते हैं उसका असर उनके कार्यकर्ताओं पर भी अवश्य ही पड़ता है. आने वाले समय में बिना बात ही आज़म की नज़रों में आगे बढ़ने के लिए छोटे नेता भी अमर सिंह या किसी अन्य को गालियाँ देने में परहेज़ नहीं करेगें तो इससे सामाजिक राजनैतिक शुचिता का क्या होगा ? मुलायम को आज़म की ज़रुरत नहीं है क्योंकि आज़म के होने या न होने से मुलायम के मुस्लिम वोट बैंक पर कोई असर नहीं पड़ता है और जिस तरह से आज़म कुछ बातों को लेकर विवाद बनाये रखना चाहते हैं तो हो सकता है कि एक बार फिर से वे अचानक ही राजनैतिक वनवास पा जाएँ ? सपा से बाहर रहकर भी आज़म अपनी स्थिति को देख और समझ चुके हैं पर अब वह समय नहीं है कि पुरानी बातों और संबंधों को जिंदगी भर अहमियत दी जाये सियासी ज़रूरतों में कई बार अपने बेगाने हो जाया करते हैं और उस समय कौन किसके साथ होता है यह कोई नहीं जानता. हो सकता है कि नेताओं की तरबियत ऐसी न हो कि वे दूसरों की इज्ज़त कर सकें पर दुनिया के सामने कम से कम एक दूसरे को हरामी साबित करके अपनी अहमियत को तो उन्हें गिरना नहीं चाहिए. जानता सब जानती कि कौन नमक का हक़ अदाकर रहा है और कौन नहीं…..

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