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एनआरएचएम घोटाला और कोर्ट

***.......सीधी खरी बात.......***
***.......सीधी खरी बात.......***
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आख़िर कार यूपी के बेहद प्रभावशाली अधिकारी और नौकरशाही में तगड़ा रसूख रखने वाले भारतीय प्रशासनिक सेवा के १९८१ बैच में अव्वल आने वाले प्रदीप शुक्ल के ख़िलाफ़ सीबीआई ने आरोप पत्र दाख़िल कर ही दिया है. इस मामले में जिस तरह से हीला हवाली की गयी और देश के राजनैतिक तंत्र और अधिकारियों के बीच तगड़े रिश्ते सबके सामने आये उससे यही लगता है कि अगर कोर्ट का दबाव न होता तो इस मामले में कुछ भी नहीं किया जाता. देश के संविधान के अनुसार किसी भी अधिकारी पर इस तरह के मुक़दमे चलाये जाने के लिए सरकार की अनुमति आवश्यक होती है पर जब सरकार में बैठे लोग ही अपराधियों को बचाने में लगे हुए हों तो न्याय की आशा किससे की जा सकती है ? इस मामले में सबसे आश्चर्यजनक बात तो यही है कि माया सरकार के भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ जनमत का लबादा ओढ़कर सत्ता हड़पने वाली सपा ने भी पूरे मामले की उसी तरह लीपा पोती की जैसी कि माया सरकार कर रही थी ? प्रदीप शुक्ल की पत्नी और अन्य ५ रिश्तेदार भी आईएएस हैं तो वे उसका लाभ उठाकर पूरे राजनैतिक तंत्र को कोई कदम उठाने ही नहीं दे रहे थे जिसका सीधा असर पूरी व्यवस्था पर पड़ रहा था.
केंद्रीय कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग से इस तरह के मामलों में मुक़दमा चलाने की अनुमति लेना एक सामान्य प्रक्रिया है पर जब पूरा मामला कोर्ट में हो तब कोई भी अपने आप कुछ नहीं करना चाहता है.कोर्ट ने जब जब अभियोजन पक्ष को कड़ी फटकार लगते हुए सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय का हवाला देते हुए कहा कि इस तरह के मामलों में राज्य, केंद्र सरकार या कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग की अनुमति की कोई आवश्यकता नहीं है फिर भी उनसे अनुमति क्यों मांगी जा रही है तब जाकर विभाग ने अनुमति दी और आरोप पत्र दाख़िल हो पाया है. अब यहाँ पर यह सवाल महत्वपूर्ण हो जाता है कि ऐसा क्या है कि अधिकारी और नेता मिलकर ऐसा ख़तरनाक गठजोड़ बना लिया करते हैं जिससे पार पाना आसान ही नहीं लगभग असम्भव सा हो जाता है ? इस तरह के मामलों में स्वतः संज्ञान को भी महत्व दिया जाना चाहिए क्योंकि जिस भी व्यक्ति ने इतने बड़े पैमाने पर हेरा फेरी की होगी उसने अपने को बचाने के लिए भी हर तरह के प्रयास किये ही होंगें तो सरकार या कोर्ट के पास आख़िर क्या रास्ते होने चाहिए जिससे इन अधिकारियों के ख़िलाफ़ शिकायत आते है उनको पोस्टिंग से अलग करके महत्वहीन पदों पर भेज दिया जाना चाहिए और जब तक वे काम न करें उनके वेतन में भी कटौती कर दी जानी चाहिए जिससे इन लोगों में कनून का भय बन सके.
ऐसा नहीं है कि केवल मुक़दमा दायर कर देने से ही पूरी लड़ाई समाप्त हो गयी है अब और भी मुश्किल दौर शुरू होने वाला है क्योंकि अभी तक जिन आरोपों को लगाया गया है अब उन्हें साक्ष्य के साथ कोर्ट में साबित भी करना होगा और इसमें किसी भी तरह की चूक इन भ्रष्टाचारियों को बचाने का काम करने वाली है. जब इतना अधिक दबाव पूरे अभियोजन पक्ष पर हो तब वह कितना निष्पक्ष होकर काम कर पायेगा यह भी देखने का विषय है क्योंकि आज भी विभिन्न दस्तावेज़ों के लिए अभियोजन पक्ष को राज्य सरकार पर ही निर्भर रहना पड़ेगा. राज्य सरकार इस मसले पर कितना कुछ सहयोग कर पाती है यह तो समय ही बताएगा पर पूरे प्रकरण में जिस तरह से पहले माया सरकार और अब अखिलेश सरकार की कोर्ट में किरकिरी हो रही है वह निश्चित तौर पर भ्रष्टाचारियों और नेताओं के समन्वय को ही दिखाता है. साफ़ सुथरी सरकार देने के साथ लक्ष्य २०१४ में जुटे मुलायम को यह समझ में नहीं आ रहा है कि इस तरह से वे खुले आम इन लोगों को बचाने के काम में लगकर आख़िर कैसे अपनी २२ सांसदों की संख्या को बचा पायेंगें क्योंकि अखिलेश सरकार के काम करने के तरीके से कहीं न कहीं प्रदेश में भाजपा को बढ़त मिलने की संभावनाएं दिखाई देने लगी हैं.

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