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चुनाव और धन-बल

***.......सीधी खरी बात.......***
***.......सीधी खरी बात.......***
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केंद्र सरकार के एक बार फिर से स्वीकार करने से कि चुनाव में धन-बल का प्रयोग बहुत अधिक होता है देश की पूरी निर्वाचन प्रक्रिया ही कटघरे में खड़ी दिखाई दती है. इस मसले पर राज्यसभा में हुई बहस में जिस तरह से केंद्र सरकार ने भी चुनाव सुधारों के बारे में अपनी चिंता और मंशा ज़ाहिर की है उससे यही लगता है कि आने वाले समय में यदि संसद सुचारू ढंग से चलती रही तो इस मुद्दे पर भी कुछ हो सकता है. आज यह बात किसी से भी छिपी नहीं है कि चुनाव में आम लोगों के लिए उतर पाना कितना मुश्किल हो चुका है जिस तरह से पूरी चुनाव प्रक्रिया को दूषित करने का काम राजनैतिक तंत्र द्वारा नियमित तौर पर किया जा रहा है उससे कुछ अच्छा हाथ आने वाला भी नहीं है क्योंकि पिछले दो दशकों में बाहुबलियों ने नेताओं को समर्थन करने के स्थान पर खुद चुनाव लड़ना शुरू कर दिया है उसके बाद भी राजनैतिक शुचिता की बातें करना परिस्थितियों से आँखें मूंदने जैसा है. एक समय था जब चुनाव केवल नैतिक बल पर ही लड़े जाते थे और जनता के समर्थन से जीत को भी सुनिश्चित किया जाता था पर आज के इस दौर में जिस तरह से किसी भी प्रकार माननीय बनने की सनक अपराधियों में बढ़ती जा रही है वह लोकतंत्र के लिय अशुभ ही है.
आख़िर आज़ादी के कुछ दशकों बाद ऐसा क्या हुआ जिससे राजनीति आम लोगों से दूर होती चली गयी और इस क्षेत्र का एक ऐसा वर्ग बनना शुरू हो गया जिसे अपने आस-पास में उपलब्ध कोई भी पद किसी भी तरह से चाहिए था भले ही वह कितना बड़ा या छोटा ही क्यों न हो ? देश का संविधान आज भी सभी को चुनाव लड़ने का अवसर देता है पर उस अवसर का लाभ कौन उठा रहा है यह भी देखने का विषय है. आज देश में जब जाति-वर्ग-धर्म आधारित राजनीति हावी होती जा रही है तो उस स्थिति में कौन राजनैतिक शुचिता के बारे में सोचना भी चाहता है ? ऐसा नहीं है कि यह सब एक दिन में ही हो गया है क्योंकि इस तरह की गंदगी फैलने में दशकों का समय लगा है आज भी कोई भी दल यह साहस नहीं कर पाता है कि वह स्थानीय जातीय समीकरण की अनदेखी करके किसी अच्छे उम्मीदवार को अपना टिकट दे सके क्योंकि केवल संसद और विधान सभाओं में धर्म, जाति की राजनीति का विरोध करना एक बात है और उसे वास्तव में हिम्मत के साथ स्वीकार कर पाना बिलकुल दूसरी बात.
जब तक हमारे नेताओं में यह साहस नहीं आएगा कि वे सही तरह से संविधान की मूल भावना के साथ चुनावों में जा सकें तब तक सदनों में इस तरह की उथली और कोरी बहस से कुछ भी नहीं सुधारा जा सकता है. इस तरह से जातीय समीकरण के आधार पर टिकट बांटकर क्या सभी दल देश के संविधान के साथ खिलवाड़ नहीं करते हैं क्या वे इस तरह से जाति-वर्ग-धर्म में समाज को बांटने का काम करने में नहीं लगे हुए हैं और क्या इसके लिए इन सभी दलों के विरुद्ध कानूनी कार्यवाही करके इनकी मान्यता रद्द नहीं की जानी चाहिए ? पर जब सभी दल केवल अपना उल्लू सीधा करने में ही लगे हुए हैं तो समाज के अन्य लोग भी चुप लगाकर बैठे हैं जब तक इस तरह की छोटी बातों पर आधारित राजनीति ही की जाती रहेगी तब तक विकसित सोच वाले लोग सदनों तक पहुँच ही नहीं पायेंगें और चुनाव सुधार जैसी खोखली बातें करके केवल जनता के पैसे की बर्बादी सदन में की जाती रहेगी. अगर देश के राजनेता इतने परिपक्व हो चुके हैं कि वे अपने काम के दम पर वोट मांग सकते हैं तो उन्हें सामने आना चाहिए पर देश की जड़ों में इन्होने इतना ज़हर घोल दिया है कि विकास की बातों पर वोट मांगने वाले भी टिकट बांटते समय विकास को भूलकर केवल समीकरणों को ही ध्यान में रख पाते हैं.

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