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महालेखाकार और सलाह

***.......सीधी खरी बात.......***
***.......सीधी खरी बात.......***
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देश के महालेखाकारों के २६ वें सम्मलेन को संबोधित करते हुए राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने जिस तरह से सभी संवैधानिक संस्थाओं को अपनी सीमा में रहने की नसीहत दी उससे यही लगता है कि आज देश जिस संक्रमण के दौर से गुज़र रहा है उस स्थिति में इस तरह के आत्म विश्लेषण की ज़रुरत भी है. राष्ट्रपति ने यह भी कहा कि अपनी ज़िम्मेदारियों को पूरा करते समय सभी संस्थाएं इस बात को भी ध्यान रखें कि उनके निर्णयों से संविधान द्वारा खींची गयी सीमाओं का उल्लंघन न हो और सभी संवैधानिक संस्थाएं मज़बूती से अपना काम कर सकें. इससे हमारी प्रशासनिक व्यवस्था के संतुलन पर भी कोई आंच नहीं आएगी और हमारी ये सभी संस्थाएं और भी परिपक्वता को प्राप्त कर पाने में सफलता हासिल कर सकेंगीं. आज के समय में जिस तरह से हाल ही में कैग द्वारा नीतिगत मामलों पर टिप्पणी की गयी फिर नेताओं द्वारा उन टिप्पणियों के समर्थन और विरोध में बयान बाज़ी की गयी उससे नेताओं को भले ही कुछ वोट मिल जाएँ पर आने वाले समय में संवैधानिक संस्थाओं में टकराव की स्थिति बन सकती है. यह सही है कि कैग को कुछ मसलों में कुछ आपत्तिजनक लगा तभी उनके द्वारा उस मसलों पर टिप्पणियाँ की गयीं है पर सरकार को अपने संवैधानिक दायित्वों को पूरा करने के लिए नीतियों को बदलने का हक़ भी मिला हुआ है जिसके तहत दोनों के अधिकार क्षेत्र यहीं पर आकर एक दूसरे से टकरा जाते हैं.
कैग विनोद राय ने जिस तरह से यह स्वीकार किया कि सरकार द्वारा उठाये गए क़दमों को केवल पैसों के पैमाने पर ही मापा नहीं जा सकता है यही दर्शाता है कि वे अपनी सीमाओं को भली भांति जानते है पर सम्मलेन में भी जिस तरह से दलगत आधार पर नेताओं ने अपनी पहले से तय की गयी बातों को दोहराया उससे यही लगता है कि इतने बड़े और महत्वपूर्ण सम्मलेन में भी हमारा राजनैतिक तंत्र उसी तरह से व्यवहार करता है जैसा वह संसद में या सड़क पर होता है ? महत्वपूर्ण यह है कि सरकार को भी अपने काम में पारदर्शिता बढ़ानी ही चाहिए जिससे आने वाले समय में लेखा विभाग को ऐसा कुछ मिले ही नहीं जिससे संवैधानिक टकराव की स्थिति बन जाये और साथ ही लेखा विभाग को भी यह समझना होगा कि उसका काम सरकार के कामों और खर्च के अनुसार किसी भी अनियमितता पर ध्यान देना है न कि किसी भी सरकार द्वारा किसी नीतिगत मामले में कुछ भी किये जाने की समीक्षा करना है. राष्ट्रपति ने जिस तरह से अपने संबोधन में सरकार और सभी संवैधनिक संस्थाओं से यह आशा की है कि उन्हें अपनी सीमाओं का ध्यान रखना चाहिए उसमें कुछ भी ग़लत नहीं है. असल में अभी तक कैग केवल सरकार के किये गए कामों पर दृष्टि डालकर उसमें वित्तीय अनियमितता पर ही ध्यान दिया करते थे पर पहली बार नीतिगत मसलों पर सरकार को कटघरे में खड़ा करने के कारण ही इस तरह की स्थिति उत्पन्न हुई है.
वैसे देखा जाये तो इस समय जिस तरह से यह विषय चर्चा में आया है उससे अंत में देश का ही भला होने वाला है क्योंकि जब चुनाव आयुक्त के रूप में टी एन शेषन ने भी इसी तरह से सक्रियता दिखाई थी तो उस समय भी राजनैतिक तंत्र ने उसका विरोध किया था पर समय के अनुसार चुनाव आयोग की सक्रियता ने जिस तरह से चुनाव के समय संविधान द्वारा दिए गए उसके अधिकारों के जनता के सामने आने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई आज पूरा देश उसे मान रहा है और आज चुनावों के समय जिस तरह से पूरी सत्ता चुनाव आयोग के हाथों में वास्तव में होती है वह एक बड़ा बदलाव है. ठीक इसी तरह से आने वाले समय में कैग के इस निर्णय और रिपोर्ट के बाद संवैधानिक संस्थाएं अपने आप में इस स्थिति का विश्लेषण करने में सफल हो सकेंगीं कि उन्हें किस हद तक पारदर्शिता की आवश्यकता है और उसका किस तरह से उपयोग किया जाना चाहिए ? मौजूदा तंत्र में बदलाव होने पर उससे प्रभावित होने वाले सभी लोगों को यही लगता है कि उनके अधिकारों में कटौती की जा रही है पर अंत में देश के संवैधानिक ढांचे के लचीलेपन और उसमें व्याप्त मज़बूती के कारण सभी संवैधानिक संस्थाएं अपनी सीमाओं का निर्धारण करने में सफल हो जायेंगीं और इस तरह से सरकार भी अपने नीतिगत फ़ैसलों को करने में स्वतंत्र होगी और कैग द्वारा भी पूरी आज़ादी के साथ अपने दायित्व का निर्वहन किया जायेगा.

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