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विचार भी गिरवी क्यों ?

***.......सीधी खरी बात.......***
***.......सीधी खरी बात.......***
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आज देश का राजनैतिक तंत्र जिस तरह से आर्थिक सुधारों के पक्ष और विपक्ष में लामबंद हो रहा है उससे यही लगता है कि हम भले ही प्रगतिशीलता की कितनी भी बड़ी बड़ी बातें कर लें हमारे पास वैचारिक स्तर पर किसी एक खेमे में घुसने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं होता है. इन मुद्दों पर विभिन्न समाचार पत्रों के इन्टरनेट संस्करण और सोशल मीडिया के पन्नों पर सब कुछ इस तरह का दिखाई देता है जैसे कोई जंग चल रही हो. आख़िर क्या कारण है कि इतना हो हल्ला मचने के बाद जिस तरह से विभिन्न पार्टियों के समर्थक अपनी बातों को सही साबित करने के लिए निम्न स्तर पर उतर कर बहस को आगे बढ़ा रहे हैं उससे देश का किस तरह से भला होने वाला है ? हर पार्टी और हर नेता के समर्थक और विरोधी होते हैं और जो वोट किसी भी प्रतिबद्धता से जुड़ा नहीं होता है उसी के फ़ैसले से सरकारें बनती और हटती हैं फिर भी जनता की सोच पर भरोसा न करने के स्थान पर अपनी बातों को ही सही बताने का जो सिलसिला चल रहा है वह देश को किसी भी तरह से आगे ले जाने का काम नहीं कर सकता है. यदि कोई नेता या समूह यह सोचता है कि उसके द्वारा किये जा रहे इन प्रचारों से ही चुनाव जीता जा सकते हैं तो वह भूल में है क्योंकि देश की जनता आज काफी हद तक परिपक्व हो चुकी है और वह नेताओं की मंशा को समझती है इसका कई बार जनता द्वारा उदाहरण भी प्रस्तुत किया जा चुका है.
अपनी बात को सभी के सामने रखने में शालीनता को छोड़ देना क्या यह सिद्ध कर सकता है कि बात रखने वाला ही सही है ? दुनिया में हर बात को समझने के सभी के नज़रिए अलग अलग होते हैं जिस पर किसी का ज़ोर नहीं चलता है ऐसे में यदि वैचारिक सम्पन्नता के नाम पर अभद्र भाषा में किसी पर टिप्पणियां की जाएँ तो उससे किसके हितों को संरक्षित किया जा सकता है ? आरोप लगाने से पहले विचारों के प्रवाह पर नियंत्रण रखना भी क्या ज़रूरी नहीं है या फिर आज के समय जो जितनी अधिक गालियों के साथ अपनी बात सबके सामने रख सकता है वही सबसे अधिक प्रबुद्ध है ? इन स्थानों पर टिप्पणियों का स्तर देखकर यही लगता है कि कुछ लोग केवल इसी काम में सक्रिय हैं और उनमें भी संभवतः इस बात के लिए प्रतिस्पर्धा चल रही है कि कौन कितने घटिया स्तर तक जाकर अपनी बात को रख सकता है ? इन कुछ जगहों पर अगर गौर किया जाये तो एक बात सामने आएगी कि जो लोग अपनी बात को इस तरह से रख रहे हैं उनमें से शायद १% भी ऐसे नहीं होंगें जिनमें इतना भी साहस हो कि वे अपने सही नाम और जानकारी के साथ यह सब लिख सकें क्योकि वे जानते हैं कि वे ग़लत तरीके से लिख रहे हैं और यदि उनके मित्र और परिवार वाले इन टिप्पणियों को पढेंगें तो उनका असली चेहरा सबके सामने आ जायेगा ? जिन लोगों में इतना नैतिक साहस भी नहीं है कि वे अपनी बात को कहने के लिए अपनी पहचान को सार्वजनिक कर सकें तो उनकी मन: स्थिति और मंशा को समझा जा सकता है.
किसी से सहमत होना या न होना हर व्यक्ति का अधिकार है पर असहमति का जो स्तर इन लोगों द्वारा प्रदर्शित किया जाता है उससे क्या साबित होता है कि हम वैचारिक स्तर पर भी कितने नीचे पहुँच चुके हैं कि केवल विरोध करने के लिए ही अपशब्दों पर उतर आते हैं ? जब इन स्थानों पर तथाकथित पढ़े लिखे लोगों का यह रुख है तो इनसे अच्छे तो वे ही अनपढ़ हैं जो कम से कम सार्वजनिक स्थानों पर अपनी बात को कहने में शालीनता का निर्वहन तो करते ही हैं. शिक्षा प्राप्त कर लेने से डिग्रियां हासिल हो सकती हैं पर वैचारिक शुद्धता के लिए जिस ज्ञान और शालीनता की आवश्यकता होती है वह केवल संस्कारों और दूसरों के सामने विनम्र बनने से ही हासिल होती है. हर नेता अपने हिसाब से सोचता है और जब तक उसके पास बहुमत या जुगाड़ से जुटाया बहुमत होता है तब तक लोकतंत्र उसे सरकार चलाने का हक़ भी देता है ऐसा भी नहीं है कि कोई दल अजेय है और कोई सदैव ही विपक्ष में रहने वाला है क्योंकि अब जनता यह जान चुकी है कि सरकारों को किस तरह ख़ामोशी से बदला जाता है ? देश की जनता खुद अपने भाग्य की निर्माता है और कुछ लोगों के वैचारिक रूप से दीवालिया होने से उसके निर्णयों पर कोई असर नहीं पड़ने वाला है इसलिए अच्छा हो कि इन जगहों पर किसी दल या नीति के समर्थन और विरोध को छोड़कर उससे देश पर पड़ने वाले प्रभाव पर विचार किया जाये जिससे सभी को कुछ तथ्य मिल सकें और हम सभी भले ही सरकार में न हों पर देश के लिए एक सार्थक नीति के बारे में सोचने में तो पीछे न रहें.

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