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एफ़डीआई और भाजपा

***.......सीधी खरी बात.......***
***.......सीधी खरी बात.......***
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नई दिल्ली में एक कार्यक्रम में बोलते हुए जिस तरह से भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी ने एफ़डीआई का कुछ शर्तों के साथ समर्थन किया वह अभी तक भाजपा के घोषित स्टैंड से बिलकुल ही अलग है क्योंकि अभी कुछ दिन पहले सूरजकुंड में भाजपा पानी पी पी कर कांग्रेस की इस बात के लिए आलोचना कर रही थी. भारतीय राजनीति में जिस तरह से दो बड़े राजनैतिक दल कांग्रेस और भाजपा केवल राजनैतिक कारणों से कई बार उन नीतियों का विरोध करते दिखाई देते हैं जिका कभी सरकार में होने पर वे समर्थन किया करते थे उससे यही लगता है कि कुछ वोटों के लालच में आज भी देश के राजनैतिक दल परिपक्वता को छोड़कर सस्ती लोकप्रियता बटोरने के काम में लगे हुए हैं. भाजपा पर अब लगता है कि उसको समर्थन करने वाले औद्योगिक घरानों ने दबाव बनाना शुरू कर दिया है जिसके बाद गडकरी ने इस तरह की बात कही है भारतीय उद्योगपति इस बारे में सक्षम हैं अगर उनको नीतिगत पूरी आज़ादी मिले तो विश्व के बहुत सारे देशों में अपनी कामयाबी की नयी इबारत लिखने में सक्षम हैं ? जहाँ तक विदेशी पूँजी निवेश को खुदरा बाज़ार में लाने की बात है तो उसके लिए आम उपभोक्ताओं और स्थानीय विक्रेताओं के संरक्षण की नीतियां बनाकर उन्हें प्रायोगिक तौर पर कुछ वर्षों के लिए लागू करके देखा जा सकता है जिससे आम लोगों और बाज़ार पर पड़ने वाले उसके असर को भी देखा जा सके और उसमें रह जाने वाली कमियों को भी दूर किया जा सके.
आज भी यदि देश हित में एफ़डीआई के मुद्दे पर संसद में गंभीर चर्चा की जाये तो ऐसा नहीं है कि कोई सर्वमान्य हल नहीं निकाला जा सकता है किसी एक नीति को बदलने में आख़िर सरकार और विपक्ष को इतना क्यों सोचना पड़ता है जबकि दुनिया के अन्य देशों में इसके माध्यम से विकास की गति को तेज़ किया जाने के बहुत सारे उदाहरण मौजूद हैं. भारतीय बाज़ार में जिस तरह से छोटे दुकानदारों के पास से ही अधिकतर सामान की बिक्री होती है उसको देखते हुए सरकार ने पहले ही इसे बड़े शहरों के लिए लागू करने की योजना बना रखी है फिर भी यदि इससे किसी को कोई आपत्ति है तो इन नीतियों की प्रति वर्ष समीक्षा भी की जा सकती है जिससे आम लोगों, उत्पादकों और वर्तमान में खुदरा व्यवसायियों पर पड़ने वाले असर का अध्ययन किया जाना चाहिए. यदि कहीं से भी ऐसा लगता है कि विदेशी कम्पनियां इस व्यापार में नीतियों का अनुपालन नहीं कर रही हैं तो उन पर जुर्माना लगाये जाने का प्रावधान होने के साथ उनको दी गयी अनुमति वापस लेने की व्यवस्था भी होनी चाहिए. हर व्यवस्था के अपने फायदे और नुकसान होते हैं पर यह हम पर निर्भर करता है कि हम अपनी नीतियों के अनुपालन पर कितना ध्यान दे पाते हैं ? आम तौर पर एक बार कुछ करके भूल जाने की आदत हम भारतीयों पर कई बार बहुत भारी पड़ चुकी है जिस कारण से भी हम अवसरों का लाभ उठाने के स्थान पर विवादों में समय गंवाकर घाटे में ही रह जाते हैं.
जिस तरह से गडकरी ने यह भी सुझाव दिया है कि हर क्षेत्र में प्रदर्शन का आडिट होना चाहिए वह एक स्वागत योग्य सुझाव है जिससे हमें नयी नीतियां बनाने और उन पर अमल करने में होने वाली सभी कठिनाइयों से पार पाने में बहुत आसानी हो सकती है और देश के विशेषज्ञों या नागरिकों के मन में जो भी शंकाएं हैं उनको भी दूर किया जा सकेगा. अभी तक विभिन्न विभागों और विभिन्न संसदीय समितियों द्वारा जिस तरह से समीक्षा किये जाने का प्रावधान है वह भी अपने आप में थका देने वाली प्रक्रिया है क्योंकि इस तरह की किसी भी प्रक्रिया में जितना समय लगता है वह देश की दिशा को बदलने के लिए काफी विलम्ब कर दिया करता है इसलिए किसी भी तरह की जाँच या आडिट को निश्चित समय में किये जाने की आदत अब देश को डालनी ही होगी क्योंकि एक दूसरे पर अपनी ज़िम्मेदारी को डालकर हम किसी भी तरह से देश का भला नहीं कर सकते हैं. गडकरी के पार्टी से अलग हटकर दिए गए इस बयान का देश के लिए किस तरह से उपयोग किया जा सकता है और नीतियां बनाने में भाजपा का किस हद तक सहयोग मिल सकता है अब मनमोहन सरकार को यह भी देखना चाहिए और यदि भाजपा की तरफ़ से यह संकेत है तो इसकी आहट को सुनकर आगे की नीतियां तैयार करने में मिलकर काम करना चाहिए.

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