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यूपीए अल्पमत में पर मज़बूत ?

***.......सीधी खरी बात.......***
***.......सीधी खरी बात.......***
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जिस तरह से ममता बनर्जी ने अपने कड़े तेवरों को दिखाते हुए यूपीए सरकार से अपना समर्थन वापस लिया है उससे यही लगता है कि आने वाले दिनों में अभी बहुत सारी राजनीति की गुंजाइश है क्योंकि आज की परिस्थितियों में कोई भी दल इस समय आम चुनावों के लिए तैयार नहीं है ? जिस तरह से सरकार को समर्थन देने के लिए अन्य दल मौजूद हैं और उसके पास बाहर से मिले हुए समर्थन के दम पर अभी बहुत कुछ बचा हुआ है तो उस स्थिति में सरकार पर तो कोई ख़तरा नहीं आने वाला है पर उसके लिए काम करने में अब नए सिरे से परेशानियाँ उत्पन्न होने वाली हैं. भ्रष्टाचार और अकर्मण्यता पर विपक्षी दलों के लिए इस सरकार को लगातार घेरने के बाद भी वह इस स्थिति में नहीं पहुँच पाया था कि सरकार की सेहत पर असर डाल सके पर ममता के इस क़दम के बाद सभी को यह लगने लगा है कि आम चुनाव जल्दी ही हो सकते हैं ? विपक्ष जिस तरह से नीतिगत मुद्दों अपर केवल राजनीति के लिए ही ऐसे कदम उठाया करता है उससे पूरे देश में नीतियों के पुनर्निर्धारण के बारे में असमंजस की स्थिति बनती है जिससे देश के बारे में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भ्रम की स्थिति बनती है सरकार चाहे किसी भी दल कि आये आज के समय में अंतर्राष्ट्रीय जगत के साथ काम करने की मंशा के बिना देश की स्वीकार्यता बढ़ने वाली नहीं है.
सरकारें हमेशा के लिए नहीं आती हैं पर भविष्य में देश की आवश्यकताओं के अनुसार यदि समय रहते उपाय कर लिए जाएँ तो वे सब लम्बे समय में बहुत सारे लाभ दे सकते हैं. आज जिन मुद्दों पर देश की राजनीति उबाल खा रही है और आम जनता के सामने नेता लोग अपने को जन हितैषी घोषित करने में लगे हुए हैं उससे क्या देश की वर्तमान नीतियों में कुछ अच्छा किया जा सकता है ? इस बात का जवाब हर दल के नेता को अब देना ही होगा क्योंकि केवल राजनीति चमकाने के लिए इस तरह के प्रयास बहुत लम्बे समय तक काम नहीं कर पाते हैं और सरकार में आने के बाद उन नियमों के तहत ही किसी भी दल को काम करना पड़ता है जो पहले से निर्धारित हैं ? अगर आम लोगों के हितों के विपरीत और तेज़ आर्थिक विकास दर हासिल करने में आज के नियम कारगर हैं तो वे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर क्यों नहीं टिक पा रहे हैं और अगर वे कहीं से कमज़ोर हैं तो देश का राजनैतिक तंत्र उनको सुधारने के लिए क्या क़दम उठा रहा है भले ही वे सत्ता पक्ष की तरफ से हों या विपक्ष की तरफ से ? देश से जुड़े आन्तरिक सुरक्षा, रक्षा, विदेश आदि विभागों की तरह ही हमें अब यह निर्धारित करना ही होगा कि इस तरह के आर्थिक मुद्दों पर देश की आधिकारिक नीति क्या हो जिस पर चलने के लिए सभी राजनैतिक दल प्रयास करें और समय समय पर इस नीति की भी समीक्षा करें जिससे इस तरह के विरोधी स्वर शांत किये जा सकें.
हो सकता है कि जिन उपायों पर यूपीए सरकार काम कर रही है उनसे उत्पन्न होने वाली विपक्षी आशंकाएं बिलकुल सही हों पर क्या देश हित में हर दल अपनी बात करने के सामने कुछ भी नहीं सुनेगा ? देश में जनता लोकतान्त्रिक प्रक्रिया के तहत दलों को सत्ता चलने का अवसर देती हैं साथ ही सदन में उस अपर अंकुश लगाये रखने के लिए विपक्ष भी मौजूद होता है पर आज के समय में सत्ता और विपक्ष के बीच जिस तरह से सम्मान का खेल खेला जाने लगा है उससे देश का बहुत बड़ा नुकसान हो रहा है. ये नेता कभी भी अपने वेतन-भत्ते, सुविधाएँ बढ़ाने और किसी दिवंगत सदस्य को श्रद्धांजलि देने के अलावा कभी भी एकमत से बोलते नहीं दिखाई देते हैं इससे यही लगता है कि या तो हमारे नेताओं में अभी लोकतंत्र की रक्षा करने की शक्ति नहीं आई है या फिर वे क्षुद्र राजनैतिक लाभ के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार बैठे हैं. गठबंधन सरकार बनाते समय जिन साझा कार्यक्रमों की बात की जाती है इस बात की कौन गारंटी दे सकता है कि वे पूरे ५ साल में बदलाव की मांग नहीं करेंगें ? किसी विशेष परिस्थिति में जब नीतियों में संशोधन की बात हो तो बदलाव की गुंजाईश रखनी ही चाहिए जिससे देश हित से जुड़े किसी भी मुद्दे पर समय रहते काम किया जा सके. फिलहाल मुलायम, माया और भाजपा चुनावों के लिए तैयार नहीं दिख रहे हैं इसलिए यूपीए सरकार किसी तरह से अपना कार्यकाल पूरा कर ही लेगी क्योंकि विपक्षी दल भले ही वे सरकार का समर्थन कर रहे हों पर अभी वे इस सरकार को और सत्ता में देखना चाहते हैं और अपने मुद्दों के स्थान पर सरकार की ग़लतियों का इंतज़ार करना चाहते हैं.

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