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तमिल-सिंहली विवाद में वोट

***.......सीधी खरी बात.......***
***.......सीधी खरी बात.......***
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पिछले कुछ महीनों में तमिलनाडु में जिस तरह से श्रीलंका से आने वाले हर व्यक्ति के ख़िलाफ़ माहौल बनाया जा रहा है उससे तमिलनाडु का किसी भी स्थिति में भला नहीं हो सकता है. केवल तमिल भावनाओं को उभारकर तमिलनाडु में श्रीलंकाई सिंहलियों के ख़िलाफ़ जो कुछ भी किया जा रहा है वह आने वाले समय में प्रदेश / देश के लिए अच्छा लेकर आने वाला नहीं है क्योंकि भारत में सभी को सभी जगहों पर आने जाने की आज़ादी है और जो भी विदेशी बाहर से यहाँ आते हैं उनको नियमानुसार पूरी छूट दी जाती है ऐसी स्थिति में केवल कुछ वोटों को हथियाने के लिए भारत आने वाले किसी भी श्रीलंकाई नागरिक के साथ दुर्व्यवहार करना कैसे सही हो सकता है. यह सही है कि श्रीलंका की जातीय समस्या में वहां पर बड़े पैमाने पर मानवधिकारों का उल्लंघन हुआ था जो कि किसी भी संघर्ष वाले क्षेत्र में आम बात हैं उस स्थिति में जो कुछ हुआ उसका बदला आज के समय में उन लोगों से लेने का प्रयास करना जिनका उसमें कोई हाथ नहीं था कहाँ की समझदारी है ? ऐसा नहीं है कि पूरा श्रीलंका ही उस समय तमिलों के ख़िलाफ़ था जब यह जातीय संघर्ष चल रहा था फिर इस तरह की हरकतें आख़िर हमारी किस सहिष्णुता का परिचय देती हैं ?
इस पूरे मसले को उभारने में जिस तरह से राज्य सरकार भी शामिल है उससे यही लगता है कि यह कोई समस्या न होकर केवल वोटों की राजनीति है क्योंकि भारत श्रीलंका द्विपक्षीय समझौते के तहत ताम्बरम हवाई अड्डे पर श्रीलंकाई वायु सैनिकों के प्रशिक्षण से शायद जयललिता सरकार को अपने वोट कटते हुए दिखाई दे रहे थे तभी उन्होंने उस अभ्यास और प्रशिक्षण का विरोध किया था ? जब मसला विदेश नीति का हो तो राज्य सरकारों को उसमें दखल नहीं देना चाहिए क्योंकि यह पूरे देश की साख़ का मामला होता है पर भारत में कुछ वोटों के लिए नेता हमेशा से ही हर नीति का उल्लंघन करने से पीछे नहीं रहते हैं. देश में स्पष्ट नीतियां न होने के कारण भी आज गठबंधन की राजनीतिके इस दौर में राज्यों के नेता विदेश नीतियों पर हमला करने से नहीं चूक रहे हैं ? कभी हिंदी विरोध के नाम पर तमिलनाडु में आग भड़काने वालों को तो शायद यह भी नहीं पता होगा कि भाषा के बंधनों को तोड़कर आज युवा तमिल हिंदी सीखकर विभिन्न कम्पनियों के काल सेंटर में बैठकर हिंदी में बखूबी जवाब दे रहे हैं ? कोई भी ज्ञान या भाषा कभी भी निरर्थक नहीं जाती है फिर भी इसको राजनीति के चश्मे से देखने की हमारे नेताओं को आदत है.
क्या कारण है कि अन्य देश से आने वाले यात्रियों और पर्यटकों की तो तमिलनाडु में खूब आवभगत की जाती है पर जैसे ही बात श्रीलंका की आती है तो सभी को यह लगने लगता है कि जैसे वे लोग तमिल संस्कृति को नष्ट करने के लिए ही वहां पर आये हैं. जातीय विवाद में श्रीलंका ने जो कुछ भी खोया है उसका अंदाज़ा तो खुद वहां के लोग भी नहीं लगा पा रहे हैं फिर भारत को उनके अंदरूनी मसले पर एक सीमा से अधिक बोलने का हक़ भी नहीं है क्योंकि धार्मिक और जातीय आधार पर फैलाई जा रही नफ़रत को भारत किसी न किसी रूप में हमेशा ही झेलता रहता है और उसे पता है कि इस तरह की स्थिति में सामंजस्य बना पाना कितना मुश्किल काम होता है ? जब खुद श्रीलंका में अब जातीय संघर्ष लगभग ख़त्म हो चुका है तो तमिलनाडु आने वाले इन श्रीलंकाई नागरिकों को इस तरह से भयभीत करके क्या हम उन्हें अपने यहाँ रह रहे तमिल नागरिकों के ख़िलाफ़ नहीं कर रहे हैं ? देश की इज्ज़त और नीतियों को चाहे जितना भी नुकसान होता रहे पर इससे हमारे नेताओं के लिए अगर कुछ वोटों का जुगाड़ होता है तो वे इसे भी भूलकर कुछ वोट इकठ्ठा करने को ही प्राथमिकता देने वाले हैं.

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