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“नाकारा” अफसर या नेता

***.......सीधी खरी बात.......***
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केंद्र सरकार के कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग ने अधिकारियों के काम काज की समीक्षा करने के अखिल भारतीय प्रशासनिक सेवाओं के अधिनियम में नियम संख्या १६ में जनवरी में संशोधन करके उनकी सेवाओं की समीक्षा करने की अवधि ३० से घटाकर १५ वर्ष कर दी है जिसके बाद अब सरकार के लिए अपने इन अधिकारियों के काम-काज के अनुसार उनकी सेवाओं पर फ़ैसला करना और आसान हो गया है. अभी तक यह देखा जाता है कि किसी भी अधिकारी के ख़िलाफ़ कोई कार्यवाही नहीं हो पाती है क्योंकि कार्मिक विभाग के पास इस तरह के कानूनी अधिकार मौजूद ही नहीं थे जिनके दम पर वह इन नाकारा अधिकारियों को सेवानिवृत्ति दे पाता जिस कारण से भी कई बार बहुत से मामलों में केंद्र और राज्य सरकारों को इन अधिकारियों से मजबूरी में ही काम चलाना पड़ता था. अब नियम में संशोधन के बाद सरकार १५ वर्ष में पहली बार या सेवा के २५ वर्ष पूरे होने या अधिकारी की आयु ५० वर्ष होने पर किसी भी स्थिति में उनकी कार्यकुशलता की समीक्षा कर सकती है इससे एक तरफ़ जहाँ इन अधिकारियों पर काम काम करने का दबाव बनेगा वहीं दूसरी तरफ़ कार्यकुशलता भी बढ़ेगी.
आज के समय और आवश्यकता के अनुसार देखने और सुनने में यह संशोधन बहुत अच्छा लगता है और जिस तरह से आज हर नेता/ अधिकारी जनता के संदेह के घेरे में है तो इससे इस नियम का देश को कितना लाभ मिल पायेगा यह अभी नहीं कहा जा सकता है क्योंकि किसी भी अधिकारी के ख़िलाफ़ इस तरह का मामला बनने पर उनकी सेवानिवृत्ति का फ़ैसला आख़िर में किस स्तर पर होगा क्योंकि जब यह अधिकार कार्मिक मंत्रालय के पास होगा तो किसी भी समय किसी भी अधिकारी पर कोई सरकार या नेता भी अपने हितों के संरक्षण के लिए काम करने का दबाव तो बना ही सकते है ? ऐसी स्थिति में यह कैसे तय हो पायेगा कि जो भी फ़ैसला विभाग द्वारा किया गया है वह पूरी तरह से निष्पक्ष है क्योंकि नेताओं के नैतिक पतन के स्तर को देखते हुए इस नियम का बड़े पैमाने पर दुरूपयोग किया जा सकता है. फिर भी अब इस डर से अच्छे संशोधनों को किये जाने की रफ्तार कम तो नहीं की जा सकती है क्योंकि जब कानूनी तौर पर सरकार के पास इस तरह के कानून होंगें तो किसी भी समय अच्छा काम करने वाले लोगों के लिए काम करना आसान हो जायेगा. देश में जिस तरह का माहौल बन रहा है उसके बाद सरकारों पर कम करने का दबाव भी बन चुका है क्योंकि काम करने वालों की सरकारें जनता ने लगातार दोबारा भी बनवाई हैं.
ऐसा नहीं है कि देश के अधिकारियों में पहले भ्रष्टाचारी नहीं होते थे पर जब से अधिकारियों और नेताओं का संपर्क आर्थिक हितों के रूप में देखा जाने लगा है तभी से पूरी स्थिति पलट गयी है आज ढूँढने से भी वे नेता नहीं मिलते हैं जिनकी आर्थिक स्थिति में पद मिलने के दो वर्षों के अन्दर ही गुणात्मक परिवर्तन न आया हो और वे अपनी पुरानी गति से ही अपने काम में लगे हुए हों ? इस स्थिति के लिए देश में बढ़ता हुआ कर संग्रह या नेताओं की नियति किसको दोषी माना जाये क्योंकि देश के लिए आर्थिक रूप से संपन्न होना ज़रूरी है पर जब यह सम्पन्नता बढ़ती है सत्ता संभाले हुए किसी भी दल के नेता अपने को भष्टाचार के दलदल में गिरने से नहीं रोक पाते हैं ? ऐसी स्थिति में इस तरह के संशोधन से जहाँ अधिकारियों पर काम करने का दबाव तो बनेगा ही वहीं दूसरी तरफ़ ईमानदारी से काम करने वाले अधिकारियों के लिए अच्छा माहौल भी बन सकता है. जिस तरह से केंद्र ने अपने अधिकारियों की समीक्षा शुरू की है और राज्य सरकारों से भी अपने स्तर पर समीक्षा करने के लिए कहा है उससे कम से कम अच्छा काम करने वाले अधिकारियों के बारे में केंद्र के पास सही सूचना तो अवश्य ही पहुँच जाएगी जिससे आने वाले समय में विभागीय प्रोन्नतियों में उनकी कार्यकुशलता का लाभ देश को मिलने लगेगा.

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