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प्रोन्नति, आरक्षण और कोर्ट

***.......सीधी खरी बात.......***
***.......सीधी खरी बात.......***
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सुप्रीम कोर्ट द्वारा जिस तरह से प्रोन्नति में आरक्षण को ग़लत ठहराया और उसके बाद इस मुद्दे पर एक बार फिर से राजनीति गरमाने लगी है उससे यही लगता है कि देश के राजनैतिक तंत्र के सोचने और समझने की शक्ति भी वोटों की आंच में जलकर नष्ट हो गयी है. आख़िर क्या कारण है कि बात बात पर कोर्ट के आदेश के सम्मान की दुहाई देने वाले दल अचानक ही किसी एक मुद्दे पर कोर्ट के फैसले से इतने डर जाते हैं कि उन्हें लगने लगता है कि अगर तुरंत इस पर कार्यवाही नहीं की गयी तो कोई दूसरा दल उनके वोटों को झटक लेगा और उनको आने वाले चुनावों में हार का सामना करना पड़ सकता है ? सबसे खेद की बात तो यही है कि जिन लोगों को आरक्षण का झुनझुना आज़ादी के बाद से ही डराकर पकड़ाया जा रहा है आज भी उनकी स्थिति में कोई विशेष अंतर नहीं हुआ है फिर भी इसी आरक्षण के राजनैतिक दांव को चलकर सभी अपनी रोटियां सेंकना चाहते हैं. इस बात पर सभी को एकमत होना चाहिए कि समाज में जो भी वंचित हैं उनके लिए कुछ विशेष व्यवस्था होनी ही चाहिए पर वह व्यवस्था लम्बे समय में उन वंचितों को आगे लाने वाली हो या फिर कम समय के लिए लाभ दिलवाने वाली हो हमारे नेता आज भी इस मसले पर एकमत नहीं हैं.
क्या कारण है कि केवल नौकरियों और प्रोन्नति में ही आरक्षण की बातें की जाती हैं आख़िर वे कौन से कारण हैं जिनके चलते देश में आज भी वंचितों का एक बड़ा वर्ग है जो शिक्षा से अछूता है ? सरकार को इस तरह के खोखले प्रयास करने के स्थान पर इन वंचितों के लिए शिक्षा और मूलभूत सुविधाओं की व्यवस्था करनी चाहिए जिससे इनके मन से आरक्षित वर्ग के होने का एहसास ख़त्म किया जा सके. आख़िर नेता क्यों चाहते हैं कि मेधावी होने के बाद भी किसी आरक्षित वर्ग के छात्र को इस भावना के साथ आगे बढ़ाया जाये कि अगर आरक्षण नहीं होता तो शायद वो आगे नहीं बढ़ पाता जबकि वास्तविकता यह है कि जिन लोगों ने एक बार आरक्षण का मज़ा लूट लिया हैं आज भी वे ही इससे लाभ उठा रहे हैं और सरकारें आरक्षण के इस झुनझुने से उन वंचितों की भावना से खिलवाड़ कर रहीं हैं ? यह सही है कि आज भी देश के दूर दराज़ क्षेत्रों में शिक्षा और अन्य बुनियादी ज़रूरतों की बहुत कमी है पर उसका असर वहां पर रहे वाले सभी लोगों पर बराबर पड़ता है फिर भी केवल आरक्षण की बातें करके नेता मसले को दूसरी दिशा में घुमाने में कामयाब हो जाते हैं.
जितनी बड़ी मात्रा में धन का आवंटन आज़ादी के बाद से वंचितों के लिए किया गया है अगर उसका सही दिशा में उपयोग हो जाता तो आज देश में इन वंचितों में भी पढ़ाई का प्रतिशत बढ़ गया होता पर उससे नेताओं को कोई लाभ नहीं होता क्योंकि शिक्षित हो जाने के बाद उनमें जो तार्किक बुद्धि विकसित होती वह इन नेताओं के खिलाफ़ भी जा सकती थी. आज़ादी के समय संविधान सभा ने अगर शर्त के साथ आरक्षण देने का निर्णय किया था तो साथ ही उसने यह भी आशा की थी हम अपने वंचितों को अगले १० वर्षों में इस लायक बना लेंगें कि उन्हें आने वाले समय में इस आरक्षण की ज़रुरत ही नहीं रह जाएगी पर इस आरक्षण को नेताओं ने ऐसा राजनैतिक रंग दे दिया है कि अब वे इसे वोट के हथियार के रूप में इस्तेमाल करने से भी नहीं चूक रहे हैं ? अगर देश को हमेशा के लिए आरक्षण की ज़रुरत होती तो डॉ अंबेडकर और अन्य मूर्धन्य विद्वानों ने इसे हमेशा के लिए लागू करने की बात की होती पर वे दूरदर्शी और अधिक समझदार लोग थे और सामजिक समरसता में विश्वास करते थे जिस कारण से उन्होंने इसे केवल १० वर्षों के लिए ही प्रस्तावित किया था पर आज उनके अनुयायी होने का दम भरने वाले सभी नेता उनके आदर्शों और सपनों को गड्ढे में डालकर केवल अपने वोटों की फ़िक्र में एक बार फिर से विधायिका को शिखंडी के रूप में इस्तेमाल करके सुप्रीम कोर्ट पर हमला करने को तैयार दिख रहे हैं.

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