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लखनऊ की सरज़मी

***.......सीधी खरी बात.......***
***.......सीधी खरी बात.......***
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शुक्रवार को टीले वाली मस्जिद से शुरू हुए उन्मादियों के उपद्रव को देखकर कहीं से लगा ही नहीं कि यह वही लखनऊ शहर है जहाँ आप जनाब की तहज़ीब सभी के सर चढ़कर बोलती है ? तहज़ीब के इस शहर में आख़िर इस ज़ेहनियत के लोग कब और कहाँ से पूरी तरह से हावी हो गए इस बात का जवाब आज किसी के पास नहीं है ? जो भी लोग इन उपद्रवों में शामिल थे क्या उनके पास इस बात का कोई जवाब है कि अपने परिवार के साथ घूमने फिरने के लिए निकले लोगों के साथ और सड़क पर आने जाने वालों के साथ जो कुछ किया गया उसका किसी अन्य के ख़िलाफ़ कहीं पर किये गए किसी अन्याय से क्या लेना देना है ? दुनिया के किसी भी हिस्से में हुई किसी घटना के लिए क्या अपने उस पड़ोसी के घर हमला करना ठीक है जो सुख दुःख में साथ खड़ा होता है क्या उस पड़ोसी का कोई रिश्तेदार किसी तरह के अत्याचार में शामिल रहा है जिसका बदला उससे लिया जा रहा है ? रमज़ान के मुक़द्दस महीने में अलविदा की नमाज़ पढ़कर दुआ में उठने वाले हाथों में खंज़र, लाठी और डंडे कहाँ से आये इस बात का जवाब लखनऊ को चाहिए और अगर कुछ शरारती लोग इस तरह की घटना में लगे हुए दिख भी रहे थे तो उनको रोकने के लिए बड़ों और बुजुर्गों की तरफ से कोई कोशिश क्यों नहीं की गयी ?
पूरे प्रकरण में प्रदेश सरकार और प्रशासन के साथ पुलिस की भूमिका संदिग्ध है और अगर इस तरह की हरकतों का मूक समर्थन करके सपा २०१४ में दिल्ली तक मुलायम सिंह को पहुँचाना चाहती है तो अब उसे भी समझ लेना चाहिए कि जिस प्रदेश ने सपा को सत्ता सौंपी है वही प्रदेश उसे उतनी सीटों के लिए भी तरसा सकता है जितने पर एक दो मंत्रियों के लिए सौदेबाज़ी भी करने की स्थिति ही न बचे ? भारी संख्या में तैनात पुलिस बल ने जिस तरह से प्रदेश और लखनऊ के इतिहास में पहली बार केवल उच्चाधिकारियों के आदेश के लिए इंतज़ार किया और उपद्रवी लखनवी तहज़ीब को तार तार करते रहे वैसा उदाहरण अभी तक प्रदेश की राजधानी ने नहीं देखा था. इस तरह से उपद्रवियों को मनमानी करने देने की छूट देने का नतीज़ा किसी दिन कालिदास मार्ग या राज भवन तक इन उपद्रवियों को पहुँचने का हौसला देने वाला है और तब प्रशासन चाहकर भी अपनी कर्तव्यनिष्ठा को प्रदर्शित करने की स्थिति में नहीं होगा. अराजकता को धर्म से नहीं जोड़ा जाना चाहिए सभी को अपनी बात शांतिपूर्वक कहने का हक़ है पर इस हक़ का बेज़ा इस्तेमाल करना किस तरह से जायज़ ठहराया जा सकता है ?
पूरे प्रकरण में अखिलेश ने जिस तरह से अधिकारियों के रवैये का बचाव किया वह सपा के लिए आने वाले समय में और बड़ी समस्या लेकर आने वाला है क्योंकि कानून व्यवस्था ठीक होने के दावे करना और धरातल पर उसे लागू करवा पाना दो अलग अलग बातें हैं. इस तरह के उपद्रव सरकार की मजबूती को नहीं बल्कि उसकी मजबूरी को दिखाते हैं जो प्रदेश में बड़े उद्योगों को तो लाना चाहती है पर इस तरह के छोटे छोटे उपद्रवियों को रोकने की मंशा ही नहीं रखती है ? कानून व्यवस्था को कोई भी अपने हाथ में लेने का प्रयास करे तो उस स्थिति में प्रशासन और पुलिस को केवल कानून का अनुपालन करना चाहिए भले ही सामने से कोई भी क्यों न हो ? सरकार की लचर नीति के कारण जिस तरह से कई घंटो तक उपद्रव होता रहा उसके लिए आख़िर किसे ज़िम्मेदार ठहराया जाये ? जो भी लोग इस प्रकरण में शामिल थे उन पर कार्यवाही करने में सरकारी अनमने पन को पूरे देश ने देख लिया है. कानून व्यवस्था के मुद्दे पर सरकार कितनी सजग है यह सभी के सामने है और सरकार का तो पता नहीं पर दुनिया के सामने लखनवी तहज़ीब का बलात्कार होने से लखनऊ की तहज़ीब ज़रूर शर्मसार है……..

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