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राष्ट्रपति चुनाव और सियासत

***.......सीधी खरी बात.......***
***.......सीधी खरी बात.......***
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अगले महीने देश अपने नए राष्ट्रपति के चुनाव में व्यस्त होगा पर पहली बार इस चुनाव को लेकर जिस तरह से सौदेबाज़ी या गठबंधन का दबाव दिखाई दे रहा है उससे यही लगता है कि अब हर बात में कुछ पा लेने की राजनैतिक हसरत ही सबसे आगे हो गयी है और इसके सामने किसी भी तरह के मूल्यों का कोई कोई मोल नहीं रह गया है ? कुछ वर्ष पहले तक यह चुनाव कम आम सहमति से किसी नाम पर सहमति हो जाने वाली बात हुआ करती थी जिसमें सत्ताधारी दल राष्ट्रपति तो मुख्य विपक्षी दल उपराष्ट्रपति पद के लिए अपने उम्मीदवार का नाम तय कर लिया करता था जिससे लगभग इन दोनों प्रत्याशियों के जीतने का रास्ता भी साफ़ हो जाता था और इस तरह के सियासी नाटक इस चुनाव में नहीं दिखाई देते थे. जब से गठबंधन के दौर ने ज़ोर पकड़ा है तभी से सत्ताधारी दल के लिए अपने उम्मेदवार को जितना उतना आसान नहीं रह गया है और विपक्षी दल भी अपने अनुसार दबाव की राजनीति करने में नहीं चूकते हैं जिससे यह प्रतीकात्मक चुनाव भी बिना बात की सरगर्मियों में डूब सा जाता है.
इस चुनाव में जिस तरह से वोटर की क़ीमत निर्धारित है उस स्थिति में किसी भी राज्य की अनदेखी कोई भी सरकार नहीं कर सकती है पर जब इस समर्थन के लिए इस तरह से हर बार कुछ न कुछ मांगने की प्रक्रिया शुरू हो जाएगी तो आने वाले समय में इस चुनाव का वह असर नहीं रह जायेगा जो आज से दो दशक पहले हुआ करता था ? यह सही है कि किसी भी राज्य के मुख्यमंत्री को यह अधिकार है कि वह राज्य के हित में केंद्र सरकार से संसाधनों की मांग करे पर इस तरफ ध्यान देने के स्थान पर राज्य केवल दबाव की राजनीति ही करने लगते हैं जिससे इन क्षेत्रीय नेताओं के बारे में यह धारणा बनने लगती है कि वे सही दिशा में विकास के स्थान पर केवल सौदेबाज़ी को ध्यान में रखकर ही कोई कदम उठाते हैं. ऐसी स्थिति से बाहर निकलने के लिए राज्यों और केंद्र के बीच में सहमति पर अधिक ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है क्योंकि अब ऐसा समय है कि नीतियों में सहयोग करके ही तेज़ी से आगे बढ़ा जा सकता है.
इस बार यदि पुराने समय के अनुसार कांग्रेस और भाजपा अपने अपने उम्मीदवार इन पदों के लिए तय कर लें और साथ ही इस तरह के मुद्दों पर आपसी सहमति से काम करना शुरू कर दें तो आने वाले समय में सौदेबाज़ी की राजनीति से देश को बाहर निकाला जा सकता है. यह भी सही है कि इन दोनों दलों में बहुत सारे मुद्दों पर मतभेद हमेशा से ही रहते हैं पर इन सर्वोच्च पदों पर किसी तरह की सौदेबाज़ी जनता को नहीं दिखनी चाहिए क्योंकि जो भी चुना जायेगा वह पूरे देश का ही राष्ट्रपति होगा. विभिन्न तरह की राजनैतिक मजबूरियों के बीच अब इन दोनों दलों को यह सोचना ही होगा कि आख़िर वे किस तरह से ज़िम्मेदारी भरा फैसला लेकर इस तरह की अनिश्चितता और भ्रम के माहौल को दूर करने का काम करते हैं फिर भी इस चुनाव के बहाने से राष्ट्रीय मुद्दों पर राजनीति छोड़कर आम सहमति बनाने के बारे में एक शुरुवात तो की ही जा सकती है जो अन्य देश हित के मुद्दों पर साथ आकर देश का कल्याण कर सकते हैं. देश के सामने लोकपाल समेत बहुत सारे अन्य मुद्दे लंबित हैं और यदि सहयोग और सहमति का दौर शुरू होता है तो इससे बहुत कुछ अच्छा भी निकल कर भी सामने आएगा.

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