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फिर मुस्लिम आरक्षण

***.......सीधी खरी बात.......***
***.......सीधी खरी बात.......***
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सर्वोच्च न्यायायलय ने जिस तरह से आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय के २७ % आरक्षण में ही ४.५ % मुस्लिम आरक्षण के फैसले पर सत्य देने से मना कर दिया है उससे यही लगता है कि इस तरह की बातें केवल धार्मिक आधार पर आरक्षण देने के लिए ही कही गयीं थीं और इनके बारे में कोई ठोस कार्ययोजना भी सरकार की तरफ से पेश नहीं की गयी थी. देश में आरक्षण को जिस समस्या से निपटने के लिए लागू किया गया था आज वह समस्या तो वहीं पर है पर और आरक्षण के नाम पर राजनीति ने अपना स्थान ले लिया है. आज़ादी के समय जिस आरक्षण की बात की गयी थी वह भी केवल १० वर्षों के लिए ही प्रस्तावित था पर बाद में जब इस सामाजिक ज़रुरत ने वोट बैंक की राजनीति की तरफ़ अपना रुख कर लिया तो किसी भी तरह से संविधान की उस मूल भावना की कद्र नहीं की गयी जिसका सपना इसका प्रस्ताव करते समय देखा गया था.
देश में इस बात से कोई भी अपने को अलग नहीं करना चाहता कि समाज के आर्थिक और सामाजिक रूप से कमज़ोर और वंचित लोगों के लिए सभी तरह की सुविधाएँ होनी चाहिए पर पर इन सुविधाओं को उन्हें समाज की मूल धारा में शामिल करके उपलब्ध कराना चाहिए या फिर किसी आरक्षण के झुनझुने के माध्यम से ? क्या आज आरक्षण का लाभ वास्तव में उन लोगों को मिल पा रहा है जो इसके अधिकारी हैं या फिर यह किसी भी तरह से उस आकांक्षा को पूरा कर पाने में सफल हो रहा है जो आम भारतीय के मन में होती है ? क्या कारण है कि आज भी पिछड़ों, दलितों, सामाजिक रूप से वंचितों और मुसलमानों के लिए आरक्षण की बातें तो बहुत बड़े स्तर पर की जाती हैं पर जब इस पिछड़ेपन के कारणों को खोजने का समय आता है तो सभी केवल आरक्षण की ही बातें करते हैं पर समाज के इस वर्ग के लोगों के लिए अच्छी शिक्षा देने और उनके लिए जीने लायक माहौल बनाने के लिए कोशिश करते नहीं दिखाई देते हैं ?
देश में अगर किसी भी समाज का वास्तव में कल्याण करना है तो इसके लिए उस समाज की आवश्यकताओं, कमजोरियों और मजबूरियों पर ध्यान दिए बिना किस तरह से उनके लिए सही दिशा में योजनायें बनायीं जा सकती हैं ? जब तक पूरे समाज को आगे बढाने का काम नहीं किया जायेगा तब तक कुछ प्रतिशत आरक्षण के माध्यम से कितनों का कल्याण हो पायेगा यह सही है कि पहली बार किसी सरकार ने धार्मिक अल्पसंख्यकों के बारे में जानकारियां जुटाने की कोशिश की पर उसका जिस तरह से सही योजनायें बनाकर कुछ करने का प्रयास होना चाहिए था वह नहीं हो पाया और इसमें भी आरक्षण जैसे छोटे रास्ते को केवल वोट लेने के के लिए इस्तेमाल में लाने की कोशिश की गयी ? क्या धार्मिक रूप से अल्पसंख्यक सिख, जैन और बौद्धों के लिए भी इस तरह के आरक्षण की ज़रुरत है ? shayad नहीं kyonki ये धार्मिक अल्पसंख्यक अपने aap में ही itne आगे badhe हुए हैं कि ये अपने साथ समाज के अन्य वर्गों का भी ध्यान रख पाने में सक्षम हैं तो इनसे सीख लेकर अन्य लोगों को आगे badhne के लिए kyon नहीं prerit किया jaata है ? par shayad उस kadam से पूरा समाज ही आगे badh जायेगा और chhoti chhoti baaton पर जो वोट की राजनीति होती rahti है uske लिए कोई स्थान ही shesh नहीं bachega ?

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