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परिणाम का परिणाम

***.......सीधी खरी बात.......***
***.......सीधी खरी बात.......***
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जिस तरह से यूपी में जनता ने सपा को स्पष्ट और सुपरिभाषित आदेश के साथ अगले ५ साल के लिए सत्ता चलाने की ज़िम्मेदारी सौंपी है उससे सभी दलों को सीख लेने की आवश्यकता है क्योंकि इस तरह से यूपी में जनता ने अनिश्चितता को समाप्त कर लगातार दो चुनावों में स्पष्ट बहुमत देकर अपनी मंशा को स्पष्ट कर दिया है. इससे पहले के चुनावों में नेतओं के पास इस बात का रोना होता था कि उन्हें जनता ने स्पष्ट जनादेश दिया ही नहीं वरना वे पता नहीं क्या कर डालते ? जनतंत्र में इस तरह की स्थिति कभी भी किसी भी नाकारा साबित हो चुके राजनैतिक दल के सामने आ सकती है और बल्कि यह कहा जाये की काम न करने की सज़ा जनता इस तरह से ही नेताओं को देती है तो कुछ भी ग़लत नहीं होगा. लोकतंत्र में इस तरह से सत्ता परिवर्तन हमेशा से ही होता रहा है और इसके साथ ही सत्ता से हटते हुए नेता भी शालीनता के साथ अगर विदाई लें तो यह देश के लिए अच्छा रहता है. जिस तरह से कांग्रेस से चुनाव कमान संभाले राहुल ने आगे आकर सपा को बधाईयाँ दीं और अपनी हार के कारणों की ज़िम्मेदारी खुद ही ली वैसा कांग्रेस में कम ही दिखाई देता है और जिस तरह से मीडिया में ये कयास लगाए जा रहे थे कि कांग्रेस राहुल पर इस हार की ज़िम्मेदारी डालने से बचेगी वैसा कुछ भी नहीं हुआ और पहले राहुल और फिर सोनिया ने आगे आकर इस ज़िम्मेदारी को पूरी तरह से अपने पर लिया जो कि सही राजनैतिक प्रक्रिया है.

जीत के बाद जिस तरह से संयत भाव से अखिलेश ने अपनी पहली प्रेस कांफ्रेंस में पुरानी बातों को भूलकर प्रदेश के पुनर्निर्माण की बात कही वह बहुत महत्वपूर्ण है. उन्होंने नेताजी के चुनावी बयानों से पलट जिस तरह से माया की मूर्तियों को अपनी जगह पर रहने देने की बात कही वह प्रदेश में एक नयी सोच और सकारात्मक राजनीति की तरफ़ संकेत करती है. चुनाव के दौरान अखिलेश ने जिस तरह से बाहुबली डी पी यादव को पार्टी टिकट देने से स्पष्ट मना कर दिया था उसके बाद जनता में उनका क़द बहुत बड़ा हो गया क्योंकि पुराने सपाई आज़म और शिवपाल डी पी को साथ में लाना चाहते थे. अगर जनता के नज़रिए से देखा जाये तो अब मुलायम सिंह को भी यह समझना होगा कि भले ही पार्टी में कोई कितना पुराना और महत्वपूर्ण क्यों न हो जनता ने अखिलेश के क़दम के साथ अपना समर्थन दिया है ? अब अगर सपा को अपनी पुरानी अराजक छवि से बाहर निकलना है तो उसे अखिलेश के विचारों को पूरी तवज्जो देनी ही होगी और विकास की बातों पर ध्यान देना होगा. समाज में सभी वर्गों के लोग रहते हैं तो उसके अनुसार सभी कि उनके हक़ मिलने चाहिए जिस तरह से पूरे प्रदेश से सपा को समर्थन मिला है उसके बाद सपा के लिए सभी के लिए काम करने को अपनी प्राथमिकता बनानी चाहिए. भ्रष्टाचार पर सही तरह से हमला होना चाहिए पर इस बहाने से किसी से भी व्यक्तिगत खुन्नस निकलने का काम नहीं हो इसका भी ध्यान रखना होगा.

किसी भी तरह की पराजय को स्वीकार करने का माद्दा अभी भी मायावती में नहीं आया है जो कि उनकी इस्तीफ़ा देने के बाद की प्रेस कांफ्रेंस से स्पष्ट होता है. उन्होंने जिस तरह से सपा पर अराजक होने के आरोप लगाये वह एक तरह से सीधे ही प्रदेश की जनता का अपमान है क्योंकि माया कौन होती हैं जो प्रदेश की जनता के फ़ैसले पर इस तरह के सवाल खड़े कर सकें ? जनता ने उनके कर्मों से आजिज़ आकर अगर उनको ५ साल पहले दी गयी सत्ता की चाभी वापस छीन ली है तो उनको किस बात का दर्द है ? उनके पास अपने तानाशाही फैसलों को लागू करवाने के लिए बसपा है तो उन्हें यह काम वहीं पर करना चाहिए जिससे केवल उनके शोषित समाज के लोग उनकी मानसिकता से और अधिक शोषित होते रहे और कभी भी खुले में सांस न ले सकें ? जिस तरह से उन्होंने अपनी कल्पना के अनुसार यह भी तय किया कि भाजपा के आ जाने के डर से प्रदेश के मुसलमान ने ७० % सपा के पक्ष में वोट दिया उससे वे क्या साबित करना चाहती हैं कि दलितों की तरह मुसलमान भी उनके बंधक बन कर जियें ? यह आरोप तो कोई अन्य दल भी माया पर लगा सकता है कि उन्हें शत प्रतिशत दलितों के वोट मिले जिससे उन्हें इतनी सीटें भी मिल गयीं ? लोकतंत्र में जैसे उनका अपना वोट बैंक है वैसे ही अन्य दलों का भी है तो उनको इस बात का कष्ट क्यों हो रहा है ? पिछली बार सपा से ऊबकर इस मुस्लिम समाज ने भी प्रदेश की जनता की तरह उनको भरपूर समर्थन दिया था तो वह सोशल इंजीनियरिंग थी और अब जब वह इनके कुकर्मों से ऊबकर आम जनता के साथ फिर से सपा का समर्थन कर रहा है तो यह एक तरफ़ा वोटिंग है ? उतावले पन में माया को यह भी याद नहीं रहा कि वे एक जीवंत लोकतंत्र में रह रही हैं तानाशाही केवल पार्टी में चल सकती है जनता पर नहीं और अगर किसी ने इसका प्रयास भी किया तो उसे भी यही दिन देखने ही पड़ेंगें.

मेरी हर धड़कन भारत के लिए है…

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