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हड़ताल की क़दम ताल

***.......सीधी खरी बात.......***
***.......सीधी खरी बात.......***
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विपक्ष में बैठकर हल्ला मचाने और सरकार चलाते हुए विपक्ष की इस तरह की अनावश्यक रणनीति को झेलना पूरी तरह से दो अलग-अलग बातें होती हैं और इस बात का अंदाजा पश्चिम बंगाल में सरकार चला रही ममता बनर्जी को आज २८ फरवरी को होने वाली वामपंथियों की हड़ताल से लग रहा है. किसी भी समस्या का समाधान केवल हड़ताल नहीं हो सकती है फिर भी खुद ममता ने भी कई मौकों पर इसे एक मज़बूत हथियार की तरह ही इस्तेमाल किया था ? सरकार के सामने ऐसे मौकों पर कानून व्यवस्था बनाये रखने की बहुत बड़ी चुनौती होती है जबकि आन्दोलनकारी छापामार वाली शैली अपनाकर सरकार की नाक में दम करके रखते हैं. किसी भी स्थिति में इस तरह की किसी भी हड़ताल को देश के हित में नहीं कहा जा सकता है क्योंकि जब औद्योगिक स्तर पर हड़ताल होती है तो उससे देश से आर्थिक परिदृश्य पर भी ग़लत असर पड़ता है. भारत आज एक तेज़ी से बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था है और उसमें इस तरह से किसी भी तरह से रोक लगाने के किसी भी काम का समर्थन नहीं किया जा सकता है भले ही उसके पीछे कोई भी शक्ति काम कर रही हो. ममता के मात्र माफ़ी मांग लेने से ही सब कुछ ठीक नहीं होने वाला है क्योंकिकल जब उनके पास सत्ता नहीं होगी तब वे फिर से अपनी इस बात को भूल जायेंगीं.

यह सही है कि लोकतंत्र में सभी को अपनी बात अपने ढंग से कहने की छूट मिली हुई है पर इस छूट को इस तरह से अपने निजी स्वार्थों के लिए इस्तेमाल करने को किसी भी परिस्थिति में सही नहीं ठहराया जा सकता है. अगर किसी को अपनी बात कहनी है तो उसे इस तरह से बलपूर्वक अपनी बात मनवाने के स्थान पर सभी को साथ लेकर चलने की बात करनी चाहिए जिससे लोकतंत्र में मिली अभिव्यक्ति की आज़ादी से सभी को अपनी बात कहने का अवसर मिलता रहे और अन्य लोगों का भी जीने का उचित अधिकार बना रहे. पिछले कुछ वर्षों से जिस तरह से हड़ताल में सभी को ज़बरदस्ती शामिल कराया जाता है उसके बाद से किसी भी हड़ताल के दिन लोग अपने घरों से निकलना पसंद नहीं करते हैं और जो आवश्यक काम होते रहने चाहिए वे भी इसी कारण से बंद हो जाया करते हैं ? देश के राजनैतिक दलों के सामने कितनी भी बड़ी समस्या क्यों न हो पर वो किसी बीमार को अस्पताल पहुँचने से कैसे रोक सकती है क्या उनको मिला यह अधिकार किसी आम व्यक्ति के अधिकारों से ज्यादा बड़ा होता है ? इस तरह की नाक का सवाल बनी हड़तालें अक्सर ही आम लोगों के इस तरह से स्वतंत्र तरीके से जीने के अधिकारों का हमेशा से ही हनन करती रही हैं जिससे हर बार कहीं न कहीं कोई इसके कारण जीवन भर के ज़ख़्म पा जाता है.

ममता का ज्ञान जिस तरह से आज बढ़ा हुआ है क्या वह उस समय भी बढ़ा रहेगा जब उन्हें केंद्र की नीतियों पर ऐतराज़ होगा या फिर वे अपने समर्थन की कीमत देश के लिए जाने वाले फ़ैसलों से हमेशा की तरह वसूलती रहेंगी ? देश के लिए सोचने का ज़िम्मा आख़िर केवल सत्ताधारी दल को किसने दिया है ? विपक्ष ने अपने को केवल विरोध करने तक ही सीमित करके देश के लिए बड़े मुद्दों पर लिए जाने वाले फ़ैसलों से खुद को बहुत दूर कर लिया है देश के लिए किसी भी नीति का निर्धारण करते समय कोई यह क्यों नहीं सोचता है कि हर नीति में कुछ अच्छाई और. बुराई हो सकती है पर उसे दूर करने के लिए समाधान सुझाने के स्थान पर दबाव बनाए रखें की नीति कभी से काम करती रही है पर साथ ही बहुत अच्छे विषयों और मुद्दों पर जहाँ पर बातचीत की पूरी गुंजाईश होती है वहां भी केवल अपने हितों को साधने के चक्कर में वे मुद्दे पीछे छूट जाया करते हैं. देश को सभी के साथ चलकर दीर्घकालीन नीतियों की आवश्यकता है जिसमें सभी की मंज़ूरी और राजनैतिक समझ साथ में हो. देश के लिए कुछ मुद्दे ऐसे होने चाहिए जिनमें किसी भी स्तर पर राजनीति का समावेश नहीं किया जाये पर नेता अपने हितों के आगे देशहित की बातें सोचने की शक्ति खो देते हैं जिसका खामियाज़ा लम्बे समय तक देश को भुगतना पड़ता है.

मेरी हर धड़कन भारत के लिए है…

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