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वेब सामग्री और कानून

***.......सीधी खरी बात.......***
***.......सीधी खरी बात.......***
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दिल्ली की एक अदालत ने जिस तरह से सोशल नेटवर्किंग साइट्स से ६ फरवरी तक आपत्तिजनक सामग्री हटाने के लिए कहा है उससे यही लगता है कि कुछ लोग केवल अपने हितों को साधने के लिए कुछ भी करने पर आमादा हैं. कुछ दिन पहले जब कपिल सिब्बल ने इस तरह की बात कही थी तो लोगों ने इसका मजाक उड़ाया था और साथ ही यह भी कहा गया था कि संप्रग सरकार अंग्रेजों की सरकार से भी ज़्यादा बर्बर होती जा रही है. अब कोर्ट द्वारा इस तरह की बातें कहने और साफ़ आदेश देने से क्या यह तय नहीं हो जाता है कि इन जगहों पर आज़ादी के नाम पर बहुत कुछ ऐसा भी किया जा रहा है जिससे सामाजिक और धार्मिक सद्भाव पर भी असर पड़ सकता है ? कोर्ट का इस तरह से सोचना बिलकुल सही है क्योंकि जब तक अपने अधिकारों के साथ हम अपने कर्तव्यों के बारे में भी जागरूक नहीं होंगें तब तक इन अधिकारों का कोई महत्त्व नहीं रह जाता है. देश में विभिन्न तरह की विचारधाराएँ हैं और किसी से असहमत होने का मतलब यह तो नहीं हो सकता है कि किसी दूसरे को अपमानित करने वाली बातें कहीं जाएँ ?

यह सही है कि नेट कंटेंट पर किसी का जोर नहीं है और भारत में इस सम्बन्ध में कड़े कानून के अभाव में किसी भी तरह से लोग अपने मन की भड़ास निकालने के लिए किसी भी स्तर तक चले जाते हैं ? अगर कोई ग़लत है तो क्या उसे ग़लत साबित करने के लिए एक और ग़लती करने की आवश्यकता है पर आज शायद कुछ लोग यही भूल कर पता नहीं किस दुनिया में जी रहे हैं ? यहाँ पर किसी भी तरह से कुछ भी कह देने वालों पर कोई लगाम नहीं है और जब मामला नेट से जुड़ा हो तो कोई भी इस बात को पक्की तौर से नहीं कह सकता है कि वहां पर होने वाली हर गतिविधि सही ही होगी ? बात किसी पर अंकुश लगाने की नहीं है बात यहाँ पर केवल इतनी है कि सभी अपनी हदों को समझे और आवश्यकता पड़ने पर खुद को नियंत्रित करना भी सीखें क्योंकि किसी में बुराई निकालना बहुत आसान होता है पर आवश्यकता पड़ने पर वैसी परिस्थिति से खुद को भी सही ढंग से निकाल पाना बहुत मुश्किल हो जाया करता है.

अब इन वेबसाइट्स को भी यह समझना चाहिए कि इस तरह के कंटेंट से कुछ भी हासिल नहीं किया जा सकता है और वे यह कहकर अपना पल्ला नहीं छुड़ा सकते हैं कि कौन क्या लिख रहा है इस पर उनका जोर नहीं है ? अब सभी को अपने आप में रहना सीखना चाहिए जिस तरह से हम अपने लोगों पर ही कीचड़ उछालने लगते हैं तो क्या इसके अलावा कोई अन्य मार्ग नहीं बचता है जिससे कुछ और किया जा सके ? किसी से असहमत होने का मतलब यह तो नहीं होता कि शालीनता की सारी हदें भी भूल जाई जाएँ ? अगर हम इस आज़ादी को संभाल पाते तो आज कोर्ट को इस तरह से दख़ल देने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती. इस तरह से हम अनियंत्रित व्यवहार करके दुनिया को क्या यह दिखाना चाहते हैं कि जिस बात को वे आसानी से ले सकते हैं वह हमें मिलने पर हम उसका कितना दुरूपयोग करने लगते हैं ? अब समय है कि हमें अपनी ज़िम्मेदारी को समझते हुए ही नेट का उपयोग करना चाहिए क्योंकि अगर हम अपनी हदों को भूलने लगेंगें तो कभी सरकार तो कभी कोर्ट हमें इस हद की याद दिलाने के लिए आगे आ ही जाएगी.

मेरी हर धड़कन भारत के लिए है…

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