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राज्य पुनर्गठन आयोग-२

***.......सीधी खरी बात.......***
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राज्यों का पुनर्गठन किया जाना जितनी आसानी के साथ नेता करवान चाहते है और कई बार राजनीतिक कारणों से इन्हें बाँट भी दिया गया है उससे प्रशासनिक क्षमताओं पर बहुत बुरा असर पड़ता है. नए छोटे राज्य में संसाधनों की उतनी ही मांग रहती है जितनी कि किसी बड़े राज्य में पर सार्वजनिक सम्पति के इस्तेमाल में नेता यह भूल जाते हैं कि नए राज्यों से लोगों का वास्तव में भला होना चाहिए न कि केवल कुछ लोगों का ? आज कई बार जिस तरह से राजनितिक अस्थिरता हो जाया करती है वैसे में नियम कानून सभी ताक़ पर रख देने में कोई भी दल नहीं चूकता है. इस मामले में ४ छोटे राज्य बनाने वाली भाजपा भी किसी से कम नहीं है क्योंकि राजनाथ सिंह प्रदेश को १०० मंत्रियों का बोझा दे चुके हैं जबकि संविधान के अनुसार अधिकतम १० % मंत्री ही होने चाहिए जिससे संसाधनों पर अतिरिक्त दवाब न बन सके. केवल बातें करने और वास्तविकता में बहुत बड़ा अंतर होता है आज राज्यों के पुनर्गठन की आवश्यकता अगर वास्तव में है तो उसकी सही प्रक्रिया अपनाई जानी चाहिए और राज्य बनने से पहले ही सभी तैयारियां कर ली जानी चाहिए. पंजाब और हरियाणा के बीच चंडीगढ़ का मसला अभी भी अनसुलझा है और अबोहर/फाजिल्का को लेकर वहां की राजनीति अक्सर ही गरमाया करती है. उत्तराखंड आज भी एक अदद पूर्णकालिक राजधानी को तरस रहा है और उत्तर प्रदश के साथ अभी तक उसके संसाधनों का बंटवारा नहीं हो पाया है. कई विभागों में आज भी कर्मचारियों को लेकर खींचतान मची हुई है.
अगर देश की आवश्यकता है तो केवल नेता यह कैसे तय कर सकते हैं कि कहाँ पर कौन सा राज्य काट कर क्या बना दिया जाये ? इस बात के लिए जनता की भागीदारी भी सुनिश्चित की जानी चाहिए जिससे आख़िर में घटिया राजनैतिक कुचक्र में फंसकर वह ही न पिस जाये पर हमारे लोकतंत्र में जनता की बातें सुनन ही कौन चाहता है हर नेता अपनी मनमानी करने में लगा हुआ है. भाजपा ने सन २००० में जो नए राज्य बनाये उससे संसाधनों पर दबाव तो बना ही पर साथ ही मंत्री राज्य पर मुसीबतें भी शुरू हो गयी क्योंकि इन प्राकृतिक रूप से संपन्न नए राज्यों के पास मूल राज्यों के संसाधन बहुत प्रचुर मात्रा में चले गए जिससे आज भी पुराने राज्य उबर नहीं पा रहे हैं. अगर उस समय केवल क्षेत्रीयता के स्थान पर विकास और प्रशासनिक समस्याओं को ध्यान में रखा जाता तो बिहार, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश को लगभग बराबर आकर में दो भागों में बांटा जाना चाहिए था जिससे राज्यों के पास समुचित संसाधन भी बने रहते और इन्हीं संसाधनों से मूल राज्य की स्थिति में कोई बड़ा अंतर भी नहीं आता. जहाँ तक बड़े राज्यों जैसे यूपी/ एमपी की बात की जाये तो यदि उन्हें केवल दो भागों में ही बांटा गया होता तो शायद ये अच्छे से आगे बढ़े होते पर जब बात केवल बंटवारे की हो तो किसी इन बातों की परवाह रहती है.
देश में कोई भी नेता राज्य की राजधानी से बाहर नहीं निकलना चाहता है जिससे इस तरह की अव्यवस्था दिखाई देती है अगर मायावती चाहती तो अपनी पूर्ववर्ती सरकारों से हटकर हर जिले के प्रभारी मंत्री के लिए यह आवश्यक ही कर देतीं कि उन्हें अपने प्रभार वाले जिले में ४ दिन रहना ही है इससे लोगों के लिए सरकार तक पहुँच आसान हो जाती और साथ ही स्थानीय प्रशासन पर भी दबाव बन जाता कि उसे भी अब काम करना ही होगा. जिस तरह से मायावती खुद औचक निरीक्षण के नाम पर तमाशा करती फिरती हैं उसके स्थान पर इन मंत्रियों की ज़िम्मेदारी तय कर दी जाती कि अगर विकास में कमी मिली तो अधिकारियों के साथ इन मंत्रियों को भी मंत्रिपद से हाथ धोना पड़ेगा. अगर इस तरह की व्यवस्था बना दी जाये जिसमें ज़िम्मेदारी तय करने की परंपरा हो तो इस पूरे देश में एक जगह से ही शासन किया जा सकता है और हमें इतने सारे मुख्यमंत्रियों और मंत्रियों को ढोने की ज़रुरत ही नहीं पड़ेगी जो जोंक की तरह देश के संसाधनों की आत्मा को चूसे जा रहे हैं ? है कोई जो देश के लिए सोचने की शक्ति रखता है ? अरे एक बार देश की जनता और देश के लिए सोचना तो शुरू करो तो जनता आपके बारे में इतना सोच लेगी कि कुर्सी से खुद ही चिपका देगी और किसी अन्य तरह की फालतू बकवास करने की ज़रुरत ही नहीं पड़ेगी पर क्या नेता बिना बोले जिंदा भी रह सकते हैं यह बहुत बड़ा प्रश्न है…..

मेरी हर धड़कन भारत के लिए है…

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