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पेट्रोल पर राजनीति

***.......सीधी खरी बात.......***
***.......सीधी खरी बात.......***
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पेट्रोल के दाम बढ़ने के साथ ही जिस तरह से संप्रग की सहयोगी ममता बनर्जी ने कड़े तेवर अपनाते हुए अपनी पार्टी की आपातकालीन बैठक बुलाई उससे यही लगता है कि अगले वर्ष के पंचायत चुनावों को देखते हुए उन्होंने अभी से तैयारियां करनी शुरू कर दी हैं. आज जिस तरह से डॉलर के मुकाबले रूपये का मूल्य गिर रहा है और अंतर्राष्ट्रीय बाज़ारों में कच्चे तेल की कीमतें बढती ही जा रही हैं तो तेल कम्पनियों और किसी भी सरकार के पास कौन से रास्ते बचते हैं इस बारे में कोई बात नहीं करना चाहता है ? क्या कोई भी सरकार इस तरह के अलोकप्रिय कदम सामान्य परिस्थितियों में उठा सकती है यह भी यहाँ पर विचार करने योग्य है. यह सही है कि जब देश में खपत के अनुसार तेल का उत्पादन नहीं होता है तो कैसे अधिक दामों पर इसे खरीद कर कम दामों पर बेचा जा सकता है ? अब इस मामले को राजनैतिक स्तर के बजाय आर्थिक स्तर पर निपटा जाये और सभी दलों के आर्थिक विशेषज्ञों की एक समिति बनायीं जाये जो राजनैतिक नज़रिए को परे हटाकर देश के लिए एक नीति का निर्धारण कर सके.
इस बारे में अगर किसी भी दल या नेता के पास कोई सुझाव है तो उसे इस समय देश के सामने रखना चाहिए क्योंकि किसी भी देश के पास या किसी भी स्तर के अर्थशास्त्री के पास इस बात का कोई ज़बाव है ही नहीं तो फिर इस बात पर राजनैतिक हो हल्ला मचाने की क्या ज़रुरत है ? हो सकता है कि इस कदम का विरोध करने से कुछ लोगों या दलों के वोट बढ़ते हों पर इससे देश का कैसे भला होने वाला है यह जवाब आज कोई भी नहीं दे सकता है. नीतियां निर्धारित करने की ज़िम्मेदारी सरकारों की होती है पर इस मामले में सरकार के पास करने के लिए कुछ भी नहीं होता है. क्यों नहीं सभी राज्य मिलकर कोई ऐसा फार्मूला निकलते हैं जिसके अंतर्गत तेल की कीमतों को नियंत्रित किये जाने की तरफ़ भी कुछ किया जा सके ? हर राज्य तेल की बढ़ी कीमतों के अनुसार टैक्स वसूलने में विश्वास करते हैं जबकि अब समय आ गया है कि इसे प्रति लीटर के हिसाब से कर दिया जाये न कि कीमत पर टैक्स लगाया जाये ? अब यह सब देश के हित में किया जाना चाहिए जिससे जनता को वास्तव में शोर शराबे के स्थान अपर कुछ हल मिल सके.
इस तरह की कोई नयी कर व्यवस्था तेल की बढ़ती हुई कीमतों में कुछ हद राहत दे सकते हैं और जो राज्य सरकारें दाम बढ़ने पर चिल्लाती हैं उन्हें भी इस वृद्धि से निपटने में कुछ सहयोग करना ही चाहिए क्योंकि अब केवल केंद्र के सर इसका ठीकरा कैसे फोड़ा जा सकता है ? अब समय आ गया है कि हर राज्य इस बात का भी खुलासा करे कि केंद्र से किस दाम पर पेट्रोल राज्य को मिलता है और राज्य के कर लगाने के बाद किस दर पर इसे बाज़ार में बेचा जाता है ? आम जनता को यही लगता है कि बढ़ोत्तरी का यह सारा पैसा केंद्र के खाते में ही जाने वाला है ? जबकि वास्तविकता यह है कि इसमें से अधिकांश हिस्सा राज्यों की जेब में ही जाता है और आम जनता को यही राज्य बरगलाने की कोशिश करते रहते हैं. ममता या अन्य राजनैतिक दल अपने हित में किसी भी तरह के कदम उठाने के लिए स्वतंत्र हैं और हो सकता है कि इस बार वे कुछ हद तक कीमतें कम भी करवा लें या फिर विरोध स्वरुप अपने मंत्रियों को सरकार से वापस बुला लें पर इससे समस्या का कोई समाधान नहीं निकलने वाला है.

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